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Vrat Katha of Jaya Ekadashi: Origin and Importance |Cosmogyaan

by | Apr 18, 2024 | Ekadashi

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Vrat Katha of Jaya Ekadashi: एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशी की विधि, उत्पत्ति-कथा और महिमाका वर्णन

नारदजी ने भगवान महादेव से प्रश्न किया कि एकादशी के व्रत की महिमा क्या है और इस व्रत को करने से किस प्रकार के फल की प्राप्ति होती है। महादेवजी ने उत्तर दिया कि एकादशी का व्रत अत्यंत पुण्यदायक होता है और इसे सभी श्रेष्ठ मुनियों को भी करना चाहिए।

जब विशेष नक्षत्रों का संयोग होता है, तो एकादशी की तिथि चार विशेष नामों से जानी जाती है – जया, विजया, जयन्ती, और पापनाशिनी। ये तिथियां सभी पापों का नाश करने वाली होती हैं और इनका व्रत अवश्य करना चाहिए। ‘पुनर्वसु’ नक्षत्र में आने वाली शुक्लपक्ष की एकादशी को ‘जया’ कहा जाता है, जिसका व्रत करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है। ‘श्रवण’ नक्षत्र में आने वाली द्वादशी को ‘विजया’ कहा जाता है, जिसमें किया गया दान और ब्राह्मण भोजन अत्यधिक फलदायक होता है, और होम और उपवास का फल तो उससे भी अधिक होता है। ‘रोहिणी’ नक्षत्र में आने वाली द्वादशी को ‘जयन्ती’ कहा जाता है, जो सभी पापों को हरने वाली होती है। इस तिथि की पूजा करने पर भगवान गोविन्द सभी पापों को धो देते हैं। ‘पुष्य’ नक्षत्र में आने वाली द्वादशी को ‘पापनाशिनी’ कहा जाता है, जो अत्यंत पुण्यमयी होती है। एक वर्ष तक प्रतिदिन एक प्रस्थ तिल का दान करने वाले और केवल ‘पापनाशिनी’ एकादशी का व्रत करने वाले का पुण्य समान होता है। इस तिथि की पूजा करने पर संसार के स्वामी सर्वेश्वर श्रीहरि प्रसन्न होते हैं और प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। इस दिन किया गया प्रत्येक पुण्यकर्म का अनन्त फल होता है।

सगरनन्दन ककुत्स्थ, नहुष, और राजा गाधि ने उस शुभ तिथि पर भगवान की आराधना की थी, जिसके प्रतिफल में भगवान ने उन्हें पृथ्वी पर सभी इच्छित वरदान दिए थे। इस तिथि के प्रभाव से मनुष्य सात जन्मों तक के कायिक, वाचिक, और मानसिक पापों से मुक्त हो जाता है, और इसमें कोई संदेह नहीं है। पुष्य नक्षत्र के साथ आने वाली पापनाशिनी एकादशी का व्रत करने से मनुष्य एक हजार एकादशियों के व्रत के समान फल प्राप्त करता है। इस दिन किए गए स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय, और देवपूजा आदि कर्मों का फल अक्षय माना जाता है। इसलिए इस व्रत को पूर्ण श्रद्धा और प्रयत्न के साथ करना चाहिए।

जब धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने अपने पांचवें अश्वमेघ यज्ञ का स्नान समाप्त किया, तब उन्होंने यदुवंश के श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया। युधिष्ठिर ने कहा—हे प्रभु! नक्तव्रत और एकभुक्त व्रत का क्या महत्व है और इन व्रतों को करने से क्या फल प्राप्त होता है? हे जनार्दन! कृपया आप मुझे इसके बारे में बताएं।

भगवान श्रीकृष्ण ने कुन्तीपुत्र को उपदेश दिया कि हेमन्त ऋतु में जब मार्गशीर्ष मास आता है, तो उसके कृष्णपक्ष की द्वादशी को व्रत करना चाहिए। इस व्रत की विधि यह है कि व्रती को दशमी के दिन एक समय भोजन करना चाहिए और शुद्धता तथा संतोष के नियमों का पालन करते हुए नक्तव्रत के अनुसार आचरण करना चाहिए। ‘नक्त’ का अर्थ है जब सूर्य की किरणें कमजोर पड़ जाती हैं, उस समय भोजन करना। रात्रि में भोजन करना नक्तव्रत नहीं माना जाता। गृहस्थों के लिए तारों के दिखाई देने पर नक्तभोजन का विधान है और संन्यासियों के लिए दिन के आठवें भाग में, क्योंकि उनके लिए रात्रि में भोजन करना निषिद्ध है। दशमी की रात्रि बीत जाने के बाद, एकादशी के प्रातःकाल में व्रत करने वाले को व्रत के नियमों को ग्रहण करना चाहिए और सुबह तथा दोपहर में स्नान करना चाहिए। कुएं में स्नान करना निम्न श्रेणी का, बावड़ी में मध्यम, पोखर में उत्तम और नदी में स्नान करना सबसे उत्तम माना गया है। जहां पानी में जीव-जंतुओं को पीड़ा होती है, वहां स्नान करने से पाप और पुण्य समान होते हैं। यदि पानी को छानकर शुद्ध किया जाए, तो घर पर भी स्नान करना उत्तम है। इसलिए, हे पाण्डव श्रेष्ठ, घर पर इस विधि से स्नान करें। स्नान से पहले निम्नलिखित मंत्र का पाठ करके शरीर पर मिट्टी लगाएं।

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ।

मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ॥

वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं। भगवान्

विष्णुने भी वामन अवतार धारण कर तुम्हें अपने पैरोंसे नापा था। मृत्तिके !

मैं अतीत में जो पाप कर्म किया है, उसे दूर करो।’ व्रत करने वाले को चाहिए कि वह एकाग्रचित्त होकर क्रोध और लोभ को त्याग दे। उसे छली, झूठे, ब्राह्मणों की निंदा करने वाले, अनैतिक संबंध रखने वाले और अन्य दुराचारियों से बातचीत नहीं करनी चाहिए। भगवान केशव की पूजा करें और उन्हें प्रसाद चढ़ाएं। घर में भक्तिभाव से दीपक जलाएं। अर्जुन! उस दिन नींद और काम-भाव का त्याग करें। धर्मशास्त्र का अध्ययन करते हुए पूरा दिन बिताएं। राजन! भक्तिभाव से रात्रि जागरण करें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और उनसे क्षमा याचना करें। कृष्णपक्ष की एकादशी जैसी है, वैसी ही शुक्लपक्ष की भी होती है, और उसी तरह से व्रत करना चाहिए।

ब्राह्मणों को चाहिए कि वे शुक्ल और कृष्णपक्ष की एकादशी व्रत करने वालों में भेदभाव न करें। शृंगोद्धार तीर्थ में स्नान करने और भगवान गदाधर के दर्शन करने से जो पुण्य मिलता है, और संक्रांति के समय चार लाख का दान करने से जो पुण्य मिलता है, वह एकादशी व्रत की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। प्रभास क्षेत्र में चंद्रमा और सूर्य ग्रहण के समय स्नान-दान से जो पुण्य होता है, वह निश्चित रूप से एकादशी का व्रत करने वाले को प्राप्त होता है। केदार क्षेत्र में जल पीने से जो पुनर्जन्म नहीं होता, एकादशी का व्रत भी वैसा ही महत्वपूर्ण है। यह गर्भवास से मुक्ति दिलाने वाला है। पृथ्वी पर अश्वमेघ यज्ञ का जो फल होता है, उससे सौ गुना अधिक फल एकादशी व्रत करने वाले को मिलता है। जिसके घर में तपस्वी और श्रेष्ठ ब्राह्मण भोजन करते हैं, उसे जो फल मिलता है, वह एकादशी व्रत करने वाले को भी अवश्य मिलता है। वेदांगों के ज्ञाता ब्राह्मण को सहस्र गोदान करने से जो पुण्य होता है, उससे सौ गुना पुण्य एकादशी व्रत करने वाले को प्राप्त होता है। इस तरह व्रती को वह पुण्य प्राप्त होता है, जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।

रात्रि का भोजन करने से आधा पुण्य प्राप्त होता है, और दिन में एक बार भोजन करने से नक्त-भोजन का आधा फल मिलता है। जब तक जीव भगवान विष्णु के प्रिय दिवस एकादशी का उपवास नहीं करता, तब तक तीर्थ, दान और नियम अपनी महत्वपूर्णता का आवाज उठाते हैं। इसलिए, हे पाण्डव श्रेष्ठ, तुम्हें इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। हे कुन्तीनन्दन, यह एक गोपनीय और उत्तम व्रत है, जिसका मैंने तुमसे वर्णन किया है। हजारों यज्ञों का अनुष्ठान भी एकादशी व्रत की तुलना में नहीं है।

युधिष्ठिर ने पूछा – हे भगवान! पुण्यमयी एकादशी तिथि कैसे उत्पन्न हुई? इस संसार में यह क्यों पवित्र मानी गई? और देवताओं को यह कैसे प्रिय हुई?

श्रीभगवान ने कहा – हे कुन्तीनन्दन! प्राचीन समय की बात है, सत्ययुग में मुर नामक एक दानव था। वह अत्यंत शक्तिशाली, रौद्र और सभी देवताओं के लिए भयानक था। उस कालरूपी दुरात्मा महासुर ने इंद्र को भी पराजित कर दिया था। सभी देवता उससे हारकर स्वर्ग से निष्कासित हो गए थे और भयभीत होकर पृथ्वी पर भटक रहे थे। एक दिन सभी देवता महादेव के पास गए। वहां इंद्र ने भगवान शिव के समक्ष अपनी व्यथा सुनाई।

इंद्र ने कहा – हे महेश्वर! ये देवता स्वर्ग से निकाले जाकर पृथ्वी पर भटक रहे हैं। मनुष्यों के बीच रहकर इनकी शोभा नहीं होती। हे देव! कृपया कोई उपाय बताएं। देवता किसका सहारा लें?

महादेव ने कहा – हे देवराज! जहां सभी को शरण देने वाले, सभी की रक्षा में तत्पर रहने वाले जगत के स्वामी भगवान गरुडध्वज विराजमान हैं, वहां जाओ। वे तुम्हारी रक्षा करेंगे।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – हे युधिष्ठिर! महादेव की बात सुनकर बुद्धिमान देवराज इंद्र सभी देवताओं के साथ वहां गए। भगवान गदाधर क्षीरसागर में विश्राम कर रहे थे। उनका दर्शन करके इंद्र ने हाथ जोड़कर स्तुति आरंभ की।

इंद्र ने कहा – हे सर्वदेवों के ईश्वर, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। देवता और असुर, दोनों ही आपकी आराधना करते हैं। हे कमलनेत्र, आप दानवों के विरोधी हैं। हे मधु के शत्रु, कृपया हमारी रक्षा करें। हे जगत के नाथ, सभी देवता मुर नामक दानव से डरकर आपकी शरण में आए हैं। हे भक्तों के प्रिय, हमें बचाइए। हे देवों के देव, हमारी रक्षा कीजिए। हे जनार्दन, हमारी रक्षा कीजिए। हे दानवों के नाश करने वाले, हमारी रक्षा कीजिए। हे प्रभु, हम सभी आपके पास आए हैं और आपकी शरण में हैं। हे भगवान, शरणागत देवताओं की सहायता कीजिए। हे देव, आप ही हमारे स्वामी हैं, आप ही हमारी बुद्धि हैं, आप ही सब कुछ करने वाले हैं और आप ही सब कुछ का कारण हैं। आप ही सभी की माँ हैं और आप ही इस जगत के पिता हैं।

हे देवों के ईश्वर, शरणागतों के प्रिय, देवता आपकी शरण में आए हैं, डर से भरे हुए। हे प्रभु, उग्र स्वभाव वाले शक्तिशाली दानव मुर ने सभी देवताओं को हराकर स्वर्ग से निकाल दिया है।

भगवान विष्णु ने सुनकर कहा, ‘हे देवराज, वह दानव कैसा है? उसका रूप और बल कैसा है, और वह कहाँ रहता है?’

इंद्र ने उत्तर दिया, ‘हे देवों के स्वामी, पुराने समय में ब्रह्मा के वंश में तालजंघ नामक एक भयानक असुर पैदा हुआ था। उसका पुत्र मुर दानव के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो बहुत ही शक्तिशाली और देवताओं के लिए खतरनाक है। चंद्रावती नामक नगर में उसने अपना निवास स्थान बनाया है। उसने सभी देवताओं को हराकर स्वर्ग से बाहर कर दिया है और एक नए इंद्र को स्वर्ग के सिंहासन पर बैठा दिया है। उसने अग्नि, चंद्रमा, सूर्य, वायु और वरुण को भी बदल दिया है। हे जनार्दन, मैं सच कह रहा हूँ, उसने सब कुछ बदल दिया है। देवताओं को उसने हर जगह से वंचित कर दिया है।’

इंद्र की बात सुनकर भगवान जनार्दन को बहुत क्रोध आया। वे देवताओं के साथ चंद्रावती नगरी गए। देवताओं ने देखा कि दैत्यराज बार-बार गर्जना कर रहा है और उससे हारकर सभी देवता भाग गए। दानव ने भगवान विष्णु को देखकर चुनौती दी, ‘खड़ा रह, खड़ा रह।’ इस पर भगवान के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और उन्होंने कहा, ‘हे दुष्ट दानव, मेरी इन भुजाओं को देख।’ इसके बाद श्रीविष्णु ने अपने दिव्य बाणों से दानवों को मारना शुरू किया। दानव भय से कांप उठे। हे पांडुनंदन, फिर श्रीविष्णु ने दैत्य सेना पर चक्र का प्रहार किया और सैकड़ों योद्धा मौत के मुँह में चले गए। इसके बाद भगवान मधुसूदन बदरिकाश्रम चले गए। वहाँ सिंहावती नामक एक गुफा थी, जो बारह योजन लंबी थी। हे पांडुनंदन, उस गुफा में केवल एक ही द्वार था।

भगवान विष्णु एक गुफा में विश्राम कर रहे थे। दानव मुर उन्हें मारने का प्रयास कर रहा था और उनका पीछा करते हुए गुफा में प्रवेश किया। भगवान को सोते हुए देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और सोचा कि वह इस देवता को निश्चित रूप से मार डालेगा। इसी समय, भगवान विष्णु के शरीर से एक दिव्य कन्या प्रकट हुई, जो सुंदर और शक्तिशाली थी, और दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। यह कन्या भगवान के तेज से उत्पन्न हुई थी और उसकी शक्ति अपार थी।

दानवराज मुर ने जब इस कन्या को देखा, तो कन्या ने उससे युद्ध की चुनौती दी। एक भयंकर युद्ध शुरू हुआ, जिसमें कन्या ने अपनी युद्ध कला का प्रदर्शन किया और मुर को उसके हुंकार से ही राख में बदल दिया। दानव के मारे जाने पर भगवान विष्णु जागे और पूछा कि इस भयानक शत्रु का वध किसने किया। कन्या ने उत्तर दिया कि उसने भगवान के प्रसाद से इस महादैत्य का वध किया है।

भगवान ने कन्या को आशीर्वाद दिया और कहा कि उसके इस कर्म से सभी लोकों में खुशी हुई है, और उसे जो भी वरदान चाहिए, वह मांग सकती है। कन्या, जो वास्तव में एकादशी थी, ने वरदान मांगा कि वह सभी तीर्थों में प्रधान, सभी विघ्नों का नाश करने वाली और सभी प्रकार की सिद्धियां देने वाली देवी बने। भगवान ने उसे आशीर्वाद दिया कि उसकी इच्छा पूरी होगी।

भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि एकादशी को उपवास करने से बहुत बड़ा पुण्य मिलता है, और एकादशी के उपवास से वैकुंठ धाम की प्राप्ति होती है। एकादशी के महात्म्य का पाठ करने वाले को गोदान के पुण्य के समान फल मिलता है, और जो लोग इसका श्रवण करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। एकादशी के व्रत से बड़ा कोई दूसरा पापनाशक व्रत नहीं है।

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Suresh Bhola

Astrologer Shree Suresh Bhola

Astrologer and Lal kitab guide